
फिर भी ख़ाली जीवन के पल।
हर मौसम बदहाल हुए हैं,
वक़्त गुज़ारा तन्हा बेकल।
किसे सुनाएँ किसकी सुने हम
कोई नहीं है मेरा हमदम;
सुस्त ज़िन्दगी गुज़र रही है,
सुप्त अवस्था में है हलचल।
कष्ट दिए हैं अनुबंधों ने;
मुझको जीवन संबंधों ने;
ख़ुशी की कोशिश रही नाकाम,
टूट गए सब शीशमहल।
मेरे तन में भी इक दिल है;
लेकिन इसके संग मुश्किल है;
ग़ैरों की क्या बात करें हम,
अपने ही करते इसको घायल।
लम्हा भी हो गया है ताजिर;
लिए बिना न होता हाज़िर;
खुदगर्ज़ी की धार में बहके,
करता सारे प्रयास निष्फल।
मुश्किल थी पर कुछ भारी थी;
तन्हाई में खुद्दारी थी;
उलझ गए हम यूँ उलझन में,
निकल सका न कोई भी हल।
हारेंगे ना हम हारे हैं;
अपने नभ के ध्रुव तारे हैं;
राज़ बतायें अब क्या यारों,
पहले भी थे अब भी मुकम्मल।
अपनों की तादात बहुत है,
फिर भी ख़ाली जीवन के पल ..................।।