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Aug 12, 2010

शलभ सरीखे

जब जब कुछ भी लूटा हमने,
तब तब कुछ कुछ लुटे भी हम हैं।
घुल मिल घुल मिल रहते रहते,
कभी कभी कुछ कटे भी हम हैं।
बचपन में थी बुद्धि छोटी,
सुख दुःख तब हम समझ न पाए;
युवा काल में स्वप्न सुनहले,
मदमाते से हरदम लहराए;
श्रृंगारित यौवन के स्पर्श से,
तृप्त होने तक सटे भी हम हैं।
जब पहनावे से होते देखा,
जग में मान सम्मान;
हमने भी तब पहने अक्सर,
नए नए परिधान;
लेकिन उसके भीतर भीतर ,
चीथड़ों से फटे भी हम हैं।
आँधी से न डरे कभी भी,
लगा न डर तूफ़ानों से;
गठबंधन जब किया मृत्यु से,
रिश्ता बना शमशानों से;
जब भी वार किया मुसीबतों ने,
डिगे नहीं और डटे भी हम हैं।
क्षण भंगुर से इस जीवन में,
झंझावातों के रहे ठिकाने;
भंवर से उबरे तट में डूबे,
जीवन नइया पार लगाने;
कुछ कुछ तो आराम किया था,
लेकिन ज्यादा खटे भी हम हैं।
हवाओं और तरंगों में हरदम,
निनादित होवे बस ये नारा;
सद्भावों के सौजन्य से फैले,
जन गण मन में भाई चारा;
तभी तो हर त्योहारों पे हरदम,
ख़ुशी मनाने जुटे भी हम हैं ।
अपनी सारी व्यथाओं के संग,
काल धार में बहे बहे हम;
शलभ सरीखे आत्माहुति को,
हरदम ही तैयार रहे हम;
रुष्ट रहे थे अनिर्णय में तो,
निर्णीत पलों में पटे भी हम हैं।











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