धरा से धूप तो सारा दिन बिदकती रही ।
ठण्ड ज्यादा थी, जिंदगी ठिठुरती रही ।।
जवानी पा के सर्दी ने कहर खूब बरपाया,
और हालत गरीबों की यहाँ बिगड़ती रही।
संवेदनहीन से हम सब घरों में दुबके रहे,
बला से हमारे उनकी दुनिया उजड़ती रही।
हाकिमों को न कोई चिंता न कोई फ़र्क पड़ा,
अलाव न थे सड़कों पे मौत बिखरती रही।
कोहरे की चादर में लिपटी सड़क भी,
हठीले हादसों के दौर से गुज़रती रही।
काँप रही थी हवा भी शीत के दर से,
ग़र्म बदनों से वो भी लिपटती रही।
गर्मी को भी सर्दी का डर सताता रहा,
इसीलिए वो भी बिस्तरों में दुबकती रही।
ढलना सूरज की मज़बूरी है ऐसा सोच कर,
कल रात भी रातभर तन्हा सुबकती रही।
जन जीवन भी अस्त व्यस्त हो गया था "राज़",
चहलकदमी सभी की यहाँ सिमटती रही।।
रुको !!
8 years ago
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